यह घटना सन 1754 की है। सीकर के रूल्याणी ग्राम के निवासी लच्छीरामजी पाटोदिया के सबसे छोटे पु़त्र मोहनदास बचपन से ही संत प्रवृति के थे। सत्संग और पूजा-अर्चना में शुरू से ही उनका मन रमता था। उनके जन्म के समय ही ज्यातिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि आगे यह घटना सन 1754 की है। सीकर के रूल्याणी ग्राम के निवासी लच्छीरामजी पाटोदिया के सबसे छोटे पु़त्र मोहनदास बचपन से ही संत प्रवृति के थे। सत्संग और पूजा-अर्चना में शुरू से ही उनका मन रमता था। उनके जन्म के समय ही ज्यातिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह बालक तेजस्वी संत बनेगा और दुनिया में इसका नाम होगा। मोहनदास की बहन कान्ही का विवाह सालासर ग्राम में हुआ था। एकमात्र पुत्र उदय के जन्म के कुछ समय पश्चात ही वह विधवा हो गई। मोहनदास जी अपनी बहन और भांजे को सहारा देने की गरज से सालासर आकर साथ रहने लगे। उनकी मेहनत से कान्ही के खेत सोना उगलने लगे। अभाव के बादल छंट गए और उनके घर हर याचक को आश्रय मिलने लगा। भांजा उदय भी बड़ा हो गया था उसका विवाह कर दिया गया।
एक दिन मामा-भांजे दोनों मिलकर खेत मेे कृषि का कार्य कर रहे थे तभी मोहनदास के हाथ से किसी ने गड़ासा छीनकर दूर फेंक दिया। मोहनदास पुनः उठा लाए और कार्य में लग गए पुनः किसी ने गड़ासा छीनकर दुर फेंक दिया। ऐसा कई बार हुआ। उदय दूर से सब देख रहा था। वह निकट आया अैार मामा को कुछ देर आराम करने की सलाह दी। मोहनदास जी ने कहा कि कोई उनके हाथ से जबरन गड़ासा छीन कर फेंक रहा है।
सायं को उदय ने अपनी मां कान्ही से इस बात की चर्चा की कान्ही ने सोचा कि भाई का विवाह करवा देते है, फिर सब ठीक हो जाएगा। यह बात मोहनदास को ज्ञात हुई तो, उन्होने कहा कि जिस लड़की से मेरे विवाह की बात चलाओगी उसकी मृत्यु हो जाएगी और वास्तव में ऐसा ही हुआ। जिस कन्या से मोहनदास के विवाह की बात चल रही थी वह अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। इसके बाद कान्ही ने भाई पर विवाह के लिए दबाव नहीं डाला। मोहनदास जी ने ब्रह्यचर्य व्रत धारण किया और भजन-कीर्तन में समय व्यतीत करने लगे।
एक दिन कान्ही अपने भाई और पुत्र को भेाजन करा रही थी, तभी द्वार पर किसी यााचक ने भिक्षा मांगी। कान्ही को जाने में कुछ देर हो गई। वह पहुंची तो उसे एक परछाई मात्र दृष्टिगोचर हूई पीछे-पीछे मोहनदास जी भी दौड़े आए थे। उन्हेें सच्चाई ज्ञात थी कि वह तो स्वयं बालाजी थे। कान्ही को अपने बिलंब पर बहुत पश्चातप हुआ। वह मोहनदास जी से बालाजी के दर्शन कराने का आग्रह करने लगी। मोहनदास जी ने उन्हें धैर्य रखने कि सलाह दी। लगभग डेढ-दो माह पश्चात् किसी साधु ने पुनः नारायण हरि, नारायण हरि का उच्चारण किया, जिसे सुन कान्ही दौड़ी-दौड़ी मोहनदास जी के पास गई। मोहनदास द्वार पर पहूंचे तो देखते हैं कि वह साधुवेशधारी बालाजी ही थे। जो अब तक वापस हो लिए थे। मोहनदास तेजी से पीछे दौड़े अैार उनके चरणों में लोट गए तथा बिलंब के लिए क्षमा-याचना करने लगे। तब बाला जी वास्तविक रूप में प्रकट हुए और बोले मैं जानता हूं मोहनदास तुम सच्चे मन से सदैव मुझे जपते हो। तुम्हारी निश्चल भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूर्ण करूगां बोलो।
मोहनदास विनयपूर्वक बोले आप मेरी बहन कान्ही को दर्शन दीजिए। भक्त वत्सल बालाजी ने आग्रह स्वीकार कर लिया और कहा, मैं पवित्र आसन पर विराजूगां और मिश्री सहित खीर व चूरमे का भेाग स्वीकार करूगां। भक्त शिरोमणी मोहनदास सप्रेम बालाजी को अपने घर लाए अैार बहन-भाई ने आदर सहित अत्यंत कृतज्ञता से उन्हें मनपंसद भोजन कराया।
सुंदर और स्वच्छ शय्या पर विश्राम के पश्चात भाई-वहन की निश्चल सेवा से प्रसन्न हो बाला जी ने कहा कि कोई भी मेरी छाया को अपने ऊपर करने की चेष्टा नहीं करेगा। श्रद्वा सहित जो भेंटट की जाएगी, मैं उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण करूगां एवं इस सालासर स्थान पर सदैव निवास करूगां। ऐसा कह बालाजी अंर्तध्यान हो गए और भक्त भाई-बहन कृत्य-कृत्य हो उठे। इसके बाद से मोहनदास जी एंकात में एक शमी के वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ गए। उन्होंने मौन व्रत धारण कर लिया।
लोग उन्हें पागल समझ बावलिया नाम से पुकारने लगे। एक दिन मोहनदास शमी वृक्ष के नीचे बैठे धूनी रमाए तपस्या कर रहे थे कि अचानक वह शमी वृक्ष फलों से लद गया। एक जाट पुत्र फल तोड़ने के लिए उसी शमी वृक्ष पर चढ़ा तो धबराहट में कुछ फल मोहनदास जी पर आ गिरे। उन्होंने सोचा वृक्ष से कोई पक्षी गिरकर घायल न हो गया हो लेकिन आंखे खेाली तो जाट पुत्र को वृक्ष पर चढ़ हुआ देखा। जाट पुत्र भय से कांप उठा था। मोहनदास जी ने उसे भय-मुक्त किया और नीचे आने को कहा। नीचे आने पर जाट पुत्र ने बताया कि मां के मना करने पर भी पिता ने उसे शमी फल लाने की आज्ञा दी और कहा कि वह पागल बावलिया तुझे खा थेाड़े ही जाएगा।
तब बाबा मोहनदास जी ने कहा कि अपने पिता से कहना कि इन फलों को खाने वाला व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। लेकिन जाट ने बाबा की बात को खिल्ली में उड़ा दिया कहते हैं कि फल खाते ही जाट की मृत्यु हो गई। तब से लोगों के मन में बाबा मोहनदास के प्रति भक्ति भाव का बीज अंकुरित हुआ, जो आगे चलकर अनेक चमत्कारिक घटनाओं के बाद वृक्ष बनता चला गया।
एक बार भांजे उदय ने देखा कि बाबा के शरीर पर पंजों के बड़े-बड़े निषान हैं। उसने पुछा तो बाबा टाल गए बाद में ज्ञात हुआ कि बाबा मोहनदास और बाला जी प्रायः मल्ल युद्व व अन्य तरह की क्रीड़ाएं करते थे और बाला जी का साया सदैव बाबा मोहनदास जी के साथ रहता था। इस तरह की घटनाओं से बाबा मोहनदास की कीर्ति दूर पास के ग्रामों में फैलती चली गई, लोग उनके दर्शन को आने लगे।
तत्कालीन सालासर बीकानेर राज्य के अधीन था। उन दिनों ग्रामों का शासन ठाकुरों के हाथ में था। सालासर व उसके निकटवर्ती अनेक ग्रामों की देख-रेख का जिम्मा शोभासर के ठाकुर धीरज सिंह के पास था। एक दिन उन्हें खबर मिली कि डाकुओं का एक विषाल जत्था लूट-पाट के लिए उस ओर बढ़ा चला आ रहा है। उनके पास इतना भी वक्त नहीं था कि बीकानेर से सैन्य सहायता मंगवा सकते। अतंतः सालासर के ठाकुर सालम सिंह की सलाह पर दोनों बाबा मोहनदास की शरण में पहुंचे और मदद की गुहार लगाई।
बाबा ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा कि बालाजी का नाम लेकर डाकुओं की पताका को उड़ा देना क्योंकि विजय पताका ही किसी भी सेना की शक्ति होती है। ठाकुरों ने वैसा ही किया। बालाजी का नाम लिया और डाकुओं की पताका को तलवार से उड़ा दिया। डाकू सरदार उनके चरणों में आ गिरा, इस तरह मोहनदास जी के प्रति दोनों की श्रद्वा बलवती होती चली गई। बाबा मोहनदास ने उसी पल वहां बाला जी की एक भव्य मंदिर बनवाने का संकल्प किया। सालम सिंह ने भी मंदिर निमार्ण में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय किया और आसोटा निवासी अपने ससुर चंपावत को बालाजी की मूर्ति भेजने का संदेश प्रेशित करवाया।
इधर, आसोटा ग्राम में एक किसान बह्यमुहूर्त में अपना खेत जोत रहा था। एकाएक हल का नीचला हिस्सा किसी वस्तु से टकराया उसे अनुभव हुआ तो उसने खोदकर देखा तो वहां एक मूर्ति निकली। उसने मूर्ति को निकाल कर एक ओर रख दिया और प्रमादवश उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह पुनः अपने काम में जुट गया। एकाएक उसके पेट में तीव्र दर्द उठा अैार वहां छटपटाने लगा। उसकी पत्नी दौड़ी-दौड़ी आई किसान ने दर्द से कराहते हुए प्रस्तर प्रतिमा निकालने अैार पेट में तीव्र दर्द होने की बात बताई। कृषक पत्नी बुद्विमती थी। वह प्रतिमा के निकट पहुची और आदरपूर्वक अपने आंचल से उसकी मिट्टी साफ की तो वहां राम-लक्ष्मण को कंधे पर लिए वीर हनुमान की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। काले पत्थर की उस प्रतिमा को उसने एक पेड़ के निकट स्थापित किया और यथाशक्ति प्रसाद चढाकर, अपराध क्षमा की प्रार्थना की तभी मानो चमत्कार हुुआ वह किसान स्वस्थ हो उठ खड़ा हुआ।
इस चमत्कार की खबर आग की तरह सारे गांव में फैल गई। आसोटा के ठाकुर चंपावत भी दर्शन को आए और उस मूर्ति को अपनी हवेली में ले गए। उसी रात ठाकुर को बाला जी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मूर्ति को सालासर पहुंचाने की आज्ञा दी। पा्रतः ठाकुर चंपावत ने अपने कर्मचारियों की सुरक्षा में भजन मंडली के साथ सजी-धजी बैलगाड़ी में मूर्ति को सालासार की ओर विदा कर दिया। उसी रात भक्त शिरोमणी मोहनदास जी को भी बालाजी ने दर्शन दिए और कहा कि मैं अपना वचन निभाने के लिए काले पत्थर की मूर्ति के रूप में आ रहा हूं। पा्रत ठाकुर सालम सिंह वह अनेक ग्रामवासियों ने बाबा मोहनदास जी के साथ मूर्ति का स्वागत किया और सर 1754 में शुक्ल नवमी को शनिवार के दिन पूर्ण विधि-विधान से हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना की गई।
श्रावण द्वादशी मंगलवार को भक्त शिरोमणि मोहनदास जी भगवत भजन में इतने लीन हो गए कि उन्होनें घी और सिंदूर से मूर्ति को श्रृंगारित कर दिया और उन्हें कुछ ज्ञात भी नहीं हुआ। उस समय बाला जी का पूर्व दर्षित रूप जिसमें वह श्रीराम और लक्ष्मण को कंधे पर धारण किए थे, अदृश्य हो गया। उसके स्थान पर दाढ़ी-मूंछ, मस्तक पर तिलक, विकट भौंहें, सुंदर आंखें, पर्वत पर गदा धारण किए अदभुत रूप के दर्शन होने लगे। इसके बाद शनैःशनैः मंदिर का विकास कार्य प्रगति के पथ पर बढ़ता चला गया। वर्तमान में मंदिर के द्वार व दीवारें चांदी विनिर्मित मूर्तियों और चित्रों से सुसज्जित हैं। गर्भगृह के मुख्यद्वार पर श्रीराम दरबार की मूर्ति के नीचे पांच मूर्तियां हैं मध्य में भक्त मोहनदास बैठे हैं, दाएं श्रीराम व हनुमान तथा बाएं बहन कान्ही और पं सुखरामजी बहनोई आशीर्वाद देते दिखाए गए हैं।
सालासर में वर्ष भर श्रद्वालुओं का तांता लगा रहता है। मंगल, शनि और प्रत्येक पूर्णिमा को दर्शनार्थी विशेष रूप से आते हैं। यहां प्रति वर्ष तीन बड़े मेले लगते हैं। प्रथम चैत्र शुक्ल चतुरदर्शी, पूर्णिमा को श्री हनुमान जंयती के अवसर पर, द्वितीय आश्विन शुक्ल चतुदर्शी पूर्णिमा को और अंतिम भाद्रपद शुक्ल चतुदर्शी पूर्णिमा को इन मेलों में लाखों श्रद्वालु आते हैं। इस अवसर पर छोटा-सा सालासर ग्राम महाकुभं- से कम नहीं है।
सालासर हनुमान धाम राजस्थान के चुरू जिले में स्थित है। यह जयपुर-बीकानेर राजमार्ग पर सीकर से लगभग 57 किमी व सूजानगढ से लगभग 24 किमी दुर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए जयपुर व अन्य स्थानों से पर्याप्त परिवहन साधन उपलव्ध हैं। किराए की टैक्सी सेवा भी उपल्ब्ध है। इस धाम के बारे में यह प्रसिद्व है कि यहां से कोई भी भक्त खाली हाथ नहीं लौटता। सालासर बालाजी सभी की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
कालांतर में मोहनदास जी ने भांजे उदयराम जी को अपना चोला प्रदान कर उन्हें मंदिर का प्रथम पुजारी नियुक्त किया। आज भी यह परंपरा कायम है। मोहनदास जी के चोले पर विराजमान होकर ही पूजा-अर्चना की जाती है। संवत 1850 की वैसाख शुक्ल त्रयोदशी को ब्रह्यमुहूर्त में बाबा मोहनदास जी समाधिस्थ हो गए और स्वर्गारोही हो गए। उस समय कहते हैं कि जल की फुहार के साथ पुष्प वर्षा होने लगी थी। अनेक लोगों ने बालाजी के प्रत्यक्ष दर्शन किए थे जो अपने सख तुल्य मोहनदास को आशीष दे रहे थे। आज सालासर भक्तों का एक पुनीत तीर्थ है। यहां आने वाले भक्तों को जब तब बालाजी के चमत्कार देखने को मिलते हैं। आदिकाल में सालासर बालाजी निश्चित ही एक उद्वारक के रूप में दर्शनार्थियों का कष्ट निवारण कर अपने सखा मोहनदास जी को दिए वचन का निर्वाह कर रहे हैं।
मंदिर के सामने के दरवाजे से थोड़ी दूर पर ही मोहनदासजी की समाधि है, जहां कानीबाई के देवलोक गमन के बाद मोहनदास जी ने जीवित-समाधि ले ली थी। पास ही कानीबाई की भी समाधि है । मंदिर के बाहर धूणां है। यह धूणा श्रीबालाजी के मन्दिर के समीप भक्तप्रवर श्री मोहनदासजी महाराज द्वारा अपने हाथों से प्रज्वलित किया गया था। यह धूणी तब से आज तक प्रज्वलित है। श्रद्धालुजन इस धूणे से भभूति ( भस्म ) ले जाते हैं और अपने संकट निवारणार्थ उपयोग करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह विभूति भक्तों के सारे कष्टों को दूर कर देती है । सच्चे मन से आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं को अचूक लाभ होते हुये देखा गया है ।
ऐसी मान्यता है कि मोहनदासजी को हनुमान जी स्वयं दर्शन देने उनके घर आए। जब मोहनदास जी उनके निकट गए तो वे तेज कदमों से वापस लौटने लगे। मोहनदास जी भी उनके पीछे चल दिए।
कुछ दूर जाकर जंगल में हनुमान जी रुके तो मोहनदासजी ने उनके पांव पकड़ लिए और पुन: घर चलने की याचना की। हनुमानजी मोहनदास के साथ घर आए, भोजन किया और विश्राम भी किया। साथ ही मोहनदास को सखा भाव प्रदान कर अन्तर्धान हो गए। बाद में मोहनदास हनुमत भक्ति में इतने लीन हो गए कि भक्त वत्सल हनुमान को बार-बार उन्हें दर्शन देने आना पडा। इस पर मोहनदास जी ने उनसे प्रार्थना की कि मैं आपके बिना एक पल भी नहीं रह सकता।
इस पर हनुमान जी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कहा कि मैं सालासर (सालमसर) में मूर्ति रूप में तुम्हारे साथ रहूंगा। बाद में आसोटा में हल चलाते समय एक जाट परिवार को हनुमान जी की सुंदर मूर्ति खेत से निकली, जिसे बाद में सालासर में स्थापित किया गया।