Mehandipur Balaji Maharaj

श्री हनुमान बालाजी मंदिर मेहंदीपुर, तहसील टोडाभीम, जिला करौली राजस्थान, के पास दो पहाडिय़ों के बीच बसा हुआ मेहंदीपुर नामक स्थान है। दो पहाडिय़ों के बीच की घाटी में स्थित होने के कारण इसे घाटा मेहंदीपुर भी कहते हैं। वर्तमान इस मंदिर कि पिछली दीवारें और गर्भगृह कभी सवाई माधोपुर जिले के अंतर्गत पड़ता था। तथा मुख्य द्वार और मंदिर का आधा भाग जयुपर जिले के अंतर्गत पड़ता था। जनश्रुति है कि यह मंदिर करीब 1 हजार साल पुराना है। यहां पर एक बहुत विशाल चट्टान में हनुमान जी की आकृति स्वयं ही उभर आई थी। इसे ही श्री हनुमान जी का स्वरूप माना जाता है।

कुछ ऐसा है बालाजी का इतिहास

प्रारंभ में यहॉ घोर बीहड जंगल था। घनी झाडि यों में द्रोर-चीते, बघेरा आदि जंगली जानवर पड़े रहते थे। चोर-डाकुओं का भी भय था। श्री महंतजी महाराज के पूर्वजों को जिनका नाम अज्ञात है, स्वप्न हुआ और स्वप्न की अवस्था में ही वे उठ कर चल दिए। उन्हें पता नहीं था कि वे कहॉ जा रहे हैं और इसी दच्चा में उन्होंने एक बड़ी विचित्र लीला देखी। एक ओर से हजारों दीपक चलते आ रहे हैं। हाथी-घोड़ो की आवाजें आ रही हैं और एक बहुत बड़ी फौज चली आ रही हे। उस फौज ने श्री बालाजी महाराज की मूर्ति की तीन प्रदक्षिणाएं कीं और फौज के प्रधान ने नीचे उतर कर श्री महाराज की मूर्ति को साद्गटॉग प्रणाम किया तथा जिस रास्ते से वे आये थे उसी रास्ते से चले गये। गोसॉई जी महाराज चकित होकर यह सब देख रहे थे। उन्हें कुछ डर सा लगा और वे वापिस अपने गॉव चले गए किन्तु नींद नहीं आई और बार-बार उसी विद्गाय पर विचार करते हुए उनकी जैसे ही ऑखें लगी उन्हें स्वप्न में तीन मूर्तियॉ, उनके मन्दिर और विच्चाल वैभव दिखाई पड़ा और उनके कानों में यह आवाज आई - ''उठो, मेरी सेवा का भार ग्रहण करों। मैं अपनी लीलाओं का विस्तार करुगा ।'' यह बात कौन कह रहाथा, कोई दिखाई नहीं पड़ा। गोसॉई जी ने एक बार भी इस पर ध्यान नहीं दिया। अन्त में श्री हनुमान जी महाराज ने इस बार स्वयं उन्हें दर्च्चन दिए और पूजा का आग्रह किया। दूसरे दिन गोसॉई जी महाराज उस मूर्ति के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि चारों ओर से घंटा-घडि याल और नगाडो की आवाज आ रही है किन्तु दिखाई कुछ नहीं दिया। इसके बाद श्री गोसॉई जी ने आस-पास के लोग इकटठे किए और सारी बातें उन्हें बताई। उन लोगों ने मिल कर श्रीमहाराज की एक छोटी सी तिवारी बना दी और यदा-कदा भोग प्रसाद की व्यवस्था कर दी। कई एक चमत्कार भी श्री महाराज ने दिखाए किंतु यह बढ ती हुई कला कुछ विधर्मियों के दुआर्श्शन में फिर से लुप्त हो गई। किसी दुआर्श्शन ने श्री महाराज की मूर्ति को खोदने का प्रयत्न किया। सेकड़ो हाथ खोद लेने पर भी जब मूर्ति के चरणों का अन्त नहीं आया तो वह हार-मानकर चला गया। वास्तव में इस मूर्ति को अलग से किसी कलाकार ने गढ कर नहीं बनाया है अपितु यह तो पर्वत का ही अंग है और यह समूचा पर्वत ही मानों उसका 'कनक भूधराकार' द्रारीर है। इसी मूर्ति के चरणों में एक छोटी सी कुण्डी थी जिसका जल कभी बीतता ही नहीं था। रहस्य यह है कि महाराज की बाईं ओर छाती के नीचे से एक बारीक जलधारा निरन्तर बहती रहती है जो पर्याप्त चोला चढ जाने पर भी बंद नहीं होती। इस प्रकार तीनों देवों की स्थापना हुई। वि.सं. 1979 में श्री महाराज ने अपना चोला बदला। उतारे हुए चोले को गाड़ियों में भर कर श्री गंगा में प्रवाहित करने हेतु बहुत से आदमी चल दिए। चोले को लेकर जब मंडावर रेलवे स्टेच्चन पर पहुंचे तो रेलवे अधिकारियों ने चोले का लगेज तय करने हेतु उसे तोला किंतु वह तुलने में ही नहीं आया। कभी एक मन बढ जाता तो कभी एक मन घट जाता। अंत में हार कर चोला वैसे ही गंगा जी को सम्मान सहित भेज दिया गया। उस समय हवन, ब्राह्मण भोजन एवं धर्म ग्रंथों का पारायण हुआ और नए चोले में एक नई ज्योति उत्पन्न हुई जिसने भारत के कोने-कोने में प्रकाच्च फैला दिया। यहॉ की सबसे बड़ी विच्चेद्गाता यही है कि मूर्ति के अतिरिक्त किसी व्यक्ति विच्चेद्गा का कोई चमत्कार नहीं है। क्या है सेवा, श्रद्धा और भक्ति ? स्वयं श्री महंत जी महाराज भी इस विद्गाय में उतने ही स्पद्गट हैं जितने अन्य यात्रीगण। यहॉ सबसे बड़ा असर सेवा और भक्ति का ही है। चाहे कोई कैसा भी बीमार क्यों न हो, यदि वह सच्ची श्रद्धा लेकर आया है तो श्री महाराज उसे बहुत स्वास्थ्य लाभ प्रदान करेंगे। इसमें कोई सन्देह नही। यहॉ की एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि अन्य तीर्थ स्थानों की तरह न तो यहॉ पण्डे,पुजारी ही यात्रियों से कुछ मांगते हैं और न ही जेबकतरे एवं चोर ही हैं। अगर किसी यात्री का गलत रवैया मिलता है तो उसे तुरंत स्थान छोड ने को विवच्च कर दिया जाता है। यह स्थान प्रारंभ से ही गोस्वामी निहंग मताधिकारियों के अधिकार में रहा है। इनके प्रकट होने से लेकर अब तक बारह महंत इस स्थान पर सेवा-पूजा कर चुके हैं और अब तक इस स्थान के दो महंत इस समय भी विद्यमान हैं। सर्व श्री गणेच्चपुरी जी महाराज (भूतपूर्व सेवक) श्री किच्चोरपुरीजी महाराज (वर्तमान सेवक)। यहॉ के उत्थान का युग श्री गणेच्चपुरी जी महाराज के समय से प्रारंभ हुआ और अब दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रधान मंदिर का निर्माण इन्हीं के समय में हुआ। वर्तमान समय का वैभव श्री गणेच्चपुरी जी महाराज के सेवाकाल में बढ़ा। वास्तव में इनकी सेवा और साधना इतनी उच्चकोटि की थी कि जिसकी समानता कहीं अन्यत्र नहीं मिल सकती। मुस्लिम शासनकाल में कुछ बादशाहों ने इस मूर्ति को नष्ट करने की कुचेष्टा की, लेकिन वे असफ़ल रहे । वे इसे जितना खुदवाते गए मूर्ति की जड़ उतनी ही गहरी होती चली गई । थक हार कर उन्हें अपना यह कुप्रयास छोड़ना पड़ा । ब्रिटिश शासन के दौरान सन 1910 में बालाजी ने अपना सैकड़ों वर्ष पुराना चोला स्वतः ही त्याग दिया । भक्तजन इस चोले को लेकर समीपवर्ती मंडावर रेलवेस्टेशन पहुंचे, जहां से उन्हें चोले को गंगा में प्रवाहित करने जाना था । ब्रिटिश स्टेशन मास्टर ने चोले को निःशुल्क ले जाने से रोका और उसका लगेज करने लगा, लेकिन चमत्कारी चोला कभी मन भर ज्यादा हो जाता और कभी दो मन कम हो जाता । असमंजस में पड़े स्टेशन मास्टर को अंततः चोले को बिना लगेज ही जाने देना पड़ा और उसने भी बालाजी के चमत्कार को नमस्कार किया । इसके बाद बालाजी को नया चोला चढाया गया । यज्ञ हवन और ब्राह्मण भोज एवं धर्म ग्रन्थों का पाठ किया गया । एक बार फ़िर से नए चोले से एक नई ज्योति दीप्यमान हुई । यह ज्योति सारे विश्व का अंधकार दूर करने में सक्षम है । किसी ने सच ही कहा है , नास्तिक भी आस्तिक बन जाते हैं , मेंहदीपुर दरबार में । इस मंदिर में बजरंग बली की बालरूप मूर्ति किसी कलाकार ने नहीं बनाई, बल्कि वह स्वयंभू है। इस मूर्ति के सीने के बाई ओर एक अत्यन्त सूक्ष्म छिद्र है, जिससे पवित्र जल की धारा निरन्तर बह रही है। यह जल बाला जी के चरणों तले स्थित एक कुण्ड में एकत्रित होता रहता है, जिसे भक्तजन चरणामृत के रूप में अपने साथ ले जाते हैं। यह मूर्ति लगभग 1000 वर्ष प्राचीन बताई जाती है, किन्तु मंदिर का निर्माण पिछली सदी में ही कराया गया। बाला जी महाराज के अलावा यहां श्री प्रेतराज सरकार और श्री कोतवाल कप्तान भैरव की मूर्तियां भी हैं। प्रेतराज सरकार यहां दण्डाधिकारी पद पर आसीन हैं, वहीं भैरव जी कोतवाल के पद पर। “इस मंदिर में यह विशेष बात है कि मंदिर में लगाया भोग प्रसाद न कोई लेता है और न किसी को दिया जाता है। और न कोई खाता है। यह प्रसाद अपने घर भी नहीं ले जाया जाता।“ भूत-प्रेतादि उपरी बाधाओं के निवारणार्थ यहां आने वालों का तांता लगा रहता है। तंत्र-मंत्रादि, उपरी शक्तियों से ग्रसित व्यक्ति भी यहां पर बिना किसी दवा-दारू और तंत्र मंत्रादि से स्वस्थ होकर लौटते हैं।

तीनों देवगण को प्रसाद चढ़ाना पड़ता है

इस मंदिर में तीन देवताओं का वास है-बाल रूप में हनुमान जी, भैंरो बाबा और प्रेत राज सरकार। दुःखी कष्टग्रस्त व्यक्ति को यहां मंदिर पहुंचकर यहां श्री बालाजी ,प्रेतराज सरकार और कोतवाल कप्तान भैरव,तीनों देवगण को प्रसाद चढ़ाना पड़ता है। बाला जी को लड्डू, प्रेतराज सरकार को चावल और कोतवाल कप्तान भैरव को उड़द का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इस प्रसाद में से दो लड्डू, रोगी को खिलाए जाते हैं,शेष प्रसाद पशुओं को डाल दिया जाता है। भूत-प्रेतादि स्वतः ही बाला जी महाराज के चरणों में आत्मसमर्पण कर देते हैं।